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ढील मारती लड़की / सीमा संगसार

तंग गलियों के भीतर
सीलन भरे
तहखाने नुमा घर के भीतर
सीढियों पर बैठी
ढील मारती लड़कियों के
नाखूनों पर
मारे जाते हैं ढील
पटापट
ठीक उसके सपनों की तरह
जो रोज-ब-रोज
मारे जाते हैं
एक-एक करके
अंधेरे में...

नहीं लिखी जाती हैं
इन पर कोई कहानियाँ
कविता
और न ही बनती है
इन पर कोई सिनेमा
कि ये कोई पद्मावती नहीं
जो बदल सके
इतिहास के रुख को...

भूसे की तरह
ठूंस-ठूंस कर
रखे गये संस्कार
उसके माथे में
भर दी जाती हैं
जिसे वे बांध लेती हैं
कस कर
लाल रिबन से...

कि वह नहीं खेल सकती
खो-खो कबड्डी
नहीं जा सकती स्कूल
गोबर पाथना छोड़कर...

वह अपने सारे अरमानों का
लगाती हैं छौंक
कङ़ाही में
और भून डालती हैं उन्हें
लाल-लाल
अपने सपनों को
जलने से पहले...