ढो रहे हम आस्थाओं के कलश-
आधे-अधूरे।
अहम के बादल ज़हर ही बरसते है,
बँद की खातिर हज़ारों तरसते हैं;
तब भला आधे-अधूरे क्या बुरे हैं-
जबकि ज्यादातर निठल्ले हिरसते हैं।
महल होने से रहे,
पर हम न होंगे कभी घूरे।
दूर तक पसरा हुआ है शुष्क बंजर,
हम नहीं तक़दीर के कोई सिकंदर;
कलश थे आधे-अधूरे: सूम के घन,
घात इस पर भी लगाए सभ्य कंजर;
समय जादूगर बड़ा हो,
हम नहीं, लेकिन जमूरे।
नाम रखने व्यर्थ हैं सूखे दिनों के,
मरों से बेहतर हमीं आधे मनों के,
कोशिशें जी-जान की शायद पसीजें-
प्रभामंडल बुझ रहे सिंहासनों के।
शाम का मरना कहाँ तक रात ये, रोए बिसूरे?
आस्थाओं के कलश आधे-अधूरे।