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तटभ्रंश / मनोज कुमार झा

आँगन में हरसिंगार मह-मह
      नैहर की संदूक से माँ ने निकाला था पटोर
पिता निकल गए रात धाँगते
      नहीं मिली फिर कहीं पैर की छाप

पानी ढहा बाढ़ का तो झोलंगा लटकाए आया मइटुअर सरंगी लिए
माँ ने किया झोलंगा को उसकी देह का और ताकने लगी मेरा मुँह
ऐसा ही कुर्ता था तुम्हारे बाप का
   पता नहीं किस वृक्ष के नीचे खोल रहा होगा साँसों का जाल

उसी पेड़ की डाल से झूलती मिली परीछन की देह
      जिस के नीचे सुस्ताता था गमछा बिछाकर

सजल कहा माँ ने – यों निष्कम्प न कहो रणछोड़
उत्कट प्रेम भी रहा हो कहीं जीवन से ।