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तट आज भी / कुमार रवींद्र

नदी कहीं चली गई है
केवल तट रह गए हैं ।
 
दो टूटी जाँघों-से
अलग-अलग पड़े तट
और उनके बीच सूखे रेत की कंकाल-यात्रा
उन मछलियों की याद में डूबे हैं
जो नदी के साथ
किसी और तट पर चली गई हैं ।
 
ये तट
यादों के कगार पर खड़े हैं -
भुलाने की कोशिश कर रहे हैं
मछलियों के नितांत अपने सन्दर्भ
किन्तु लहरें जो संवाद
इनकी गोद में छोड़ गई हैं
वे भूलने नहीं देते ।
उँगलियों से लहरों ने जो गीत
इन तटों पर लिखे थे
वे नहीं गए हैं
हालाँकि नदी चली गई है
और तट अकेले रह गए हैं ।
 
इन तटों पर खड़े
पेड़ों की टहनियों से
आज भी लटकी हैं वे झंकारें
जिन्हें नदी और तट ने मिलकर बजाया था ।
रोशनी के कंगूरे पर खड़े
ये तट
उन झंकारों को सुन रहे है स्तब्ध ।
 
दूर से आते नदी के स्वर
इन तिरस्कृत तटों से टकराते हैं
और वे हो जाते हैं
एकदम नीरव - नितांत मौन
कि उन ध्वनियों के भुलावे में आकर
अपने अंदर बहते प्रवाह को छू सकें ।
 
इन तटों पर सूखी आकृतियाँ
केवल आँख का छल हैं -
इनके अंदर
लहरें आज भी जीवित हैं
और छू रहे हैं
बार-बार उनकी टूटी जाँघों को
वे स्पर्श
जो इन्हें जोड़ते हैं ।
 
नदी कहीं चली गई है
किन्तु तट आज भी जीवित हैं ।