डुबा एक को तीन-चार यदि बच जाएँ तो,
नीति यही कहती है, कुछ परवाह नहीं!
बँधी लीक पर चलनेवाली दुनियादारी
क्यों बूझे, यह कला-तीर्थ की राह नहीं!
पार्थिव सुख के पीछे मरनेवाली दुनिया
कलाकार को ठीक समझ भी पाती है?
लोकोत्तर संगीत गले से पाती जिसके,
उसी गले पर स्वार्थी छुरी पजाती है!
मस्ती इनका दोष, हवा से बज उठते हैं;
बाँस तभी तो काटे छेदे जाते हैं!
शीतल गंध लुटाने से ही वनचन्दन
साँपों से घिरते हैं, चिता सजाते हैं!