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तनहाई / विश्वनाथप्रसाद तिवारी

अजीब ध्वनियाँ बेडौल, खण्डित
कहीं किसी आदमी की आहट नहीं

एक पत्ता गिरा है शायद
                      बाहर
एक कौए के पंख फड़फड़ाए हैं
कोई गौरैया उड़ी है चहकती हुई ।

तेज़ हो गई साँसों की गति
धड़कने लगा है दिल
बढ़ गया रक्त का दबाव
ताप, नाड़ी की चाल ।
शायद कोई आ रहा है ।

खुली हुई स्थिर आँखें
चक्कर लगाते पाँव
खुरदुरी दीवारों को
आहिस्ता सह लाती उँगलियाँ
हवाओं को घेरकर चूमती बाँहें
(एक मौन एहसास
फिर रिक्तता...रिक्तता...)
ज़िन्दगी ।

प्रतीक्षा कर रहा हूँ तुम्हारी पद-चापों की ।
एक भटकती आत्मा
ढूँढ़ रही है अपना बिछड़ा शरीर ।