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तनिक और / शिशु पाल सिंह 'शिशु'

तनिक और पतझार से खेल लूँ फिर,
तुम्हारी बहारों को आवाज दूँगा
अभी स्वावलम्बन से काम लूँ फिर,
तुम्हारे सहारे को आवाज दूँगा
(१)
हवा हरहराकर कंपाती दिशायें,
नदी से उठी सिन्धु की घोषणायें
उछलते हैं लहरों के फन तक्षकों से,
भंवर खोल मुँह हँस रहे दायें- बायें
मगर नाव अपनी नहीं डगमगाई,
भुजाओं से पतवार की है सगाई
तनिक और मँझधारसे खेल लूँ फिर,
तुम्हारे किनारों को आवाज दूँगा
अभी स्वाबलम्बन से ही काम लूँ फिर,
तुम्हारे सहारोंको आवाज दूँगा
(२)
लगी दण्डकारण्य में घोर ज्वाला,
उड़ी शून्य पथ से वि हँगों की माला
अनल बाण से लपलपाती हैं लपटें,
पड़ा मेरे मृग को ही जौहर से पाला
मगर याद मुझको है गाथा पुरानी,
बुझी जैसे दावानलों की निशानी
अभी तक तो अपने में पानी है फिर,
तुम्हारी फुहारों को आवाज दूँगा
अभी स्वाबलम्बन से ही काम लूँ फिर,
तुम्हारे सहारों को आवाज दूँगा
(३)
जवानी का हुंकार मस्ती का स्वर है,
बियावान में एक हस्ती का स्वर है
जरूरी नहीं है की तन के ही संग में,
बुढा जाये मन जो अजर- अमर है
अभी तक तो अपना वही कार्यक्रम है,
नवागन्तुकों के लिये स्वागतम् है
पके अनुभवों से जरा काम लेकर फिर,
तुम्हारे कुमारों को आवाज दूँगा
अभी स्वाबलम्बन से ही काम लूँ फिर,
तुम्हारे सहारों को आवाज दूँगा
(४)
हिमालय से ज्यादा वजनदार जीवन,
का बोझ उठाये अ हँभाव का मन
यही मन का रावण पसारे दशानन,
लिये जा रहा हाँक करके मेरा तन
चढाओं- उतारों का पथ है भयंकर,
हजारों हैं काँटे करोड़ो हैंकंकर
अभी तक तो कंधों पे है पालकी फिर,
तुम्हारे कहारोंको आवाजदूँगा
अभी स्वाबलम्बन से ही काम लूँ फिर,
तुम्हारे सहारों को आवाज दूँगा
(५)
कहाँ चाँद दो- दो दमकते गगन में,
कहाँ सूर्य दो- दो दमकते भुवन में
इकाई की संज्ञा को लेकर पवन भी,
अकेला ही चलता नगर में विजन में
मगर एक होकर भी मैं एक कब हूँ,
विचारों का मेला लिये साथ जब हूँ
अभी तो चलूँगा अकेला ही फिर मैं,
तुम्हारे हजारों को आवाज दूँगा
अभी स्वाबलम्बन से ही काम लूँ फिर,
तुम्हारे सहारों को आवाज दूँगा
(६)
नहीं चाहता हूँ की घायल धरा हो,
कपाली का खप्पर रुधिर से भरा हो
प्रकति का महाबद्शक्ल पुत्र रण है,
बचे इससे धरती तो अंचल हरा हो
मगर व्यंग खोटे किये जा रहे हैं,
समर के निमंत्रण दिये जा रहे हैं
अभी सदविचारों से ही काम लूँ फिर,
तुम्हारे दुधारों को आवाज दूँगा
अभी स्वाबलम्बन से ही काम लूँ फिर,
तुम्हारे सहारों को आवाज दूँगा
(७)
जहां पर के तुलसी के श्री राम आये,
कछारों में सूरा के घनश्याम आये
जहाँ बुद्ध, नानक, महावीर जन्मे,
पिथौरा, शिवा देश के काम आये
जहाँ की सुबह रोज गाती प्रभाती,
जहाँ नित्य संध्या जलाती है बाती
उसी भूमि के कण प्रथम चूमकर फिर,
तुम्हारे सितारों को आवाज दूँगा
अभी स्वाबलम्बन से ही काम लूँ फिर,
तुम्हारे सहारों को आवाज दूँगा