सिलसिला-ए-रोज़-ओ-शब
मेरे कमरे की कँटीली दीवार का नाम है
और दरवेश
एक मानूस असीर का
चर्ख़
एक बूढ़ा अइयार है
जिसकी मक्कारी मेरे इदराक को मुसलसल फ़रेब देती है
मेरी नींद के फाटक पर
सौ मन भारी
ताला लटका हुआ है
जिसकी चाबी नहर-ए-दूद में खो गई
मुझे याद नहीं मेरे हवास की सूरत कुछ भी
मैं
एक ख़्वाब से निकल कर
बदहवास
दूसरे ख़्वाब में दाख़िल होता हूँ
बदन में शोलःज़न होता है भूरा साँप
हर दूसरी छटपटाहट पहली को बोसे देती है
कमरे का ठण्डा सीला सन्नाटा
भीतर की हर आवाज़ को
ओक से सुड़ककर पी जाता है
मेरी ख़्वाबगाह एक खौलता तन्दूर है
जिसमें रोटियाँ नहीं
मेरा गोश्त पकता है ।