पर्वत भैया अभी खेत से
लौटे, खड़े हुए,
तन्वंगी यह नदी धार
भौजी-सी भली लगे ।
बार-बार लोनी लहरों की
चूनर सरकाए,
नई उमर का गीत सलोना
बस गाती जाए,
क्षण भर गहन गँभीर, दूसरे
क्षण मनचली लगे ।
बहती जाए देह कि जैसे
अंतहीन आँधी,
पीछे-पीछे दौड़ लगाती
हवा बनी बाँदी,
प्यासे तटबंधों को तो
मिसरी की डली लगे ।
जहाँ मिले पौधे शरारती
ख़ूब गए डाँटे,
मीठे चुम्बन हरियाली को
किन्तु गए बाँटे ।
तनिक परस ही पेड़ों को
सुख की अंजली लगे ।