(धुन चपक-ताल कहरवा)
तन की रक्षा करने, करने मनका पूरा शान्ति-विधान।
करने नित्य परमहित बनकर अन्न तुम्हीं आते भगवान्॥
करके ग्रहण इन्द्रियोंद्वारा ले जाते तुम अपने पास।
यों तुम ‘यज्ञ’ बना देते मेरे भोजनको बिना प्रयास॥
तुम्हें निवेदित होकर वह बन जाता अन्न पुनीत प्रसाद।
तीनों लोक तृप्त हो जाते उससे मिटते ताप-विषाद॥
अन्न तुम्हीं, अर्पण तुम्हीं हो, अर्पक तुम्हीं, तुम्हीं अन्तःस्थ।
तुम्हीं गृहीता, तुम्हीं प्रकृति, पुरुषोम, तुम्हीं पुरुष प्रकृतिस्थ॥
तुम ही हो सब कुछ, सब कुछ में तुमही मेरे हो नित साथ।
नित्य सतत मैं सब कार्योंसे पूजा करूँ तुहारी नाथ!॥