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तपती दोपहरी में हरदम छांव चाहे मेरा मन / देवी नांगरानी

तपती दोपहरी में हरदम छांव चाहे मेरा मन
गुनगुनी-सी धूप को फिर पल में तरसे मेरा मन

जब क्षितिज के पार देखा कशतियों को डूबते
साथ उनके डूबते सूरज-सा डूबे मेरा मन

शोखियाँ यौवन की, बचपन की शरारत बेशुमार
देखकर यादों का शीशा तिलमिलाये मेरा मन

गर्दिशों की धूल में धँसते हैं मेरे पांव जब
छटपटाता छूटने को चंगुलों से मेरा मन

बेवफाई, बेरुख़ी उसकी रही आदत सदा
चुपके-चुपके तन्हा बैठा आज रोए मेरा मन

बारहा यादों की अंगनाई में घूम आती हूँ मैं
लाख उनको मैं मनाऊँ पर न माने मेरा मन

आंधियों में भी जले हैं आस के दीपक सदा
साये में उनके ही ‘देवी’ झिलमिलाए मेरा मन.