मैंने पतितपावनी गंगा में किया स्नान
छलछल करता
और यमुना का जल
देह से स्पर्श किया।
सोचा कि तमस से मुक्त हुआ अब
तमसा के तट पर
उसके निर्मल जल से करूँ स्नान।
शहर के सँकरे रास्तों से
वाहनों की भीड़भाड़ से
होता हुआ मैं तमसा के तट पर पहुँचा
न पेड़ थे, न थी छाया
दहकती ज्वालाओं से भरी लू चल रही थी
अंगारे बरसा रहा था सूरज
देखी मैंने सूखी तमसा
केवल एक रेखा भर बची थी उसकी काया।
न क्रौंच मिला, न व्याध
आदि कवि तो वहाँ कहाँ होते?
दूर मसान में कच्चा माँस खाते गीध दिखे बस।