बुझी न दीप की शिखा अनन्त में समा गई।
अमंद ज्योति प्राण-प्राण बीच जगमगा गई!
अथाह स्नेह के प्रवाह में पली,
अमर्त्य वर्त्तिका नहीं गई छली,
असंख्य दीप एक दीप बन गया
कि खिल उठी प्रकाश की कली-कली
घनांधकार जल गया स्वयं नहीं हिली शिखा,
प्रकाश-धार में तमस भरी धरा नहा गई!
अकम्प ज्योति-स्तम्भ वह पुरूष बना,
कि जड़ प्रकृति बनी विकास-चेतना,
न सत्य-बीज मृत्तिका छिपा सकी
उगी, बढ़ी, फली अरूप कल्पना,
न बंध सका असत्-प्रमाद-पाश में प्रकाश-तन
विमुक्त सत्-प्रभा दिगन्त बीच मुस्कुरा गई!
मरा न कामरूप कवि बना अमर,
कि कोटि-कोटि कण्ठ में हुआ मुखर
मिटा न, काल का प्रवाह बन घिरा
असीम अन्तरिक्ष में अनन्त स्वर,
न मंत्र-स्वर-अमृत संभाल मृण्मयी धरा सकी,
त्रिकाल-रागिनी अनन्त सृष्टि बीच छा गई!