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तमाशा घोॅर में लड़ाय / मृदुला शुक्ला

जब सें बड़का बनलोॅ छी,
खड़ा गोड़ पर होलोॅ छी,
मैये संग-संग घुमलोॅ करलौं,
अँचरा पकड़ी झूमलोॅ करलौं,
जखनी मम्मी झल्लाबै छै,
तखनी हम्में कानलोॅ करलौं।

एक दिनां मम्मीं समझैलकै,
टी.वी. खोली केॅ दिखलैलकै,
जैमें लोगे भरलोॅ छेलै;
गाछ-बिरिछ सें घिरलोॅ छेलै;
सुन्दर चिड़ियों गाबै छेलै;
मम्मी जाय केॅ आबै छेलै;
शेविंग करतें पापा छेलै;
घड़ी दिखैतें मामा छेलै;
दादी हमरी प्यारी छेलै;
खड़ा बीच फुलवारी छेलै;
ढेरे आंटी-अंकल छेलै;
शांत कुछु-कुछ चंचल छेलै;
हमरोॅ हेनोॅ बच्चो छेलै;
कुछ गन्दा, कुछ अच्छो छेलै;
झूमी-झूमी नाँचै छेलियै;
जखनी ई सब देखै छेलियै।

लेकिन जखनी हुवै लड़ाय
खून-खराबा-मार-पिटाय,
देखी-देखी डरौं बहुत,
सौंसे राती जगौं बहुत
सुनोॅ-सुनोॅ हो हमरोॅ भाय,
करौ कथी लेॅ रोज लड़ाय!
आबोॅ झूमोॅ, नाचोॅ तोंय,
प्रेमगीत केॅ बाँचोॅ तोंय।