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तमीज़ / हरीशचन्द्र पाण्डे

जेब से निकली वह क्रीजदार रूमाल
बार-बार मुँह का जूठा पोंछ रही है
मगर गन्दी नहीं हो पा रही है

दिखने लायक जूठा कहीं था भी नहीं

बचा-बचा बीन-बीनकर खा रहा था इतने सलीके से वह
कि जूठा होना ही नहीं था

चेहरा भी उसका दर्पण रहा

उसी में देखा मैंने
जूठा मेरे चेहरे पर लगा थाकृ