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तरकुल / कुमार वीरेन्द्र

क्या ज़माना था
ज़माना, भाई रामाधीन के ताड़ की ताड़ी
पीते थे, तरकुल नहीं खाते थे पण्डित जी; ताड़ी पीते थे, तरकुल नहीं खाते थे बाबू साहेब
ताड़ी पीते थे, तरकुल नहीं खाते थे यादव जी; अउर हई लाला जी; हई, हई भूमिहार जी
सोचिए, भाई रामाधीन; सोचिए कि क्या-क्या विधान रच रखा था
इन जी अउर साहेब लोगों ने; जिस ताड़ का रस
पीकर, पण्डित जी बने रह सकते
थे पण्डित जी, बाबू
साहेब
बने रह सकते थे
बाबू साहेब, यादव जी यादव जी, लाला जी
लाला जी, अउर भूमिहार जी भूमिहार जी ही, तब ताड़ का फल, तरकुल खाकर, अछूत कैसे
हो जाते; अगर ताड़ का पेड़ डोम, उसका फल डोम, तब उसका रस पवित्र कैसे हो गया, कैसे
भाई रामाधीन; कैसे कि खाते किसी ने देख लिया, बिन बूझे भूख, हाहाकार
मच जाता, पंचायत बैठ जाती अउर वह खानेवाला ज़ात
से बाहर कर दिया जाता; फिर उसके घर
उसकी जाति के न आते
बेटा ब्याहने
न आने देते
बेटी ब्याहने; कैसे दिन थे, कैसे
दिन, भाई रामाधीन, कुछ कहो कैसे दिन थे; जब कोई नशे में, कितना
भी धुत्त कह सकता था, 'ऐसी रसीली, रंगीली ई ताड़ी, तड़बनवा लागे
मरद की मरदाही हो', लेकिन भूलकर भी नहीं कह
सकता था; सुनो, मेरे प्रिय, बहुत ही
प्रिय फल का नाम है
तरकुल; हाँ
तरकुल...!