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तरबूज / नज़ीर अकबराबादी

क्यू न हो सब्ज़ जुमुर्रद के बराबर तरबूज़।
करता है खु़श्क कलेजे के तई तर तरबूज़।
दिल की गर्मी को निकाले है यह अक्सर तरबूज़।
जिस तरफ़ देखिए बेहतर से है बेहतर तरबूज़।
अब तो बाजार में बिकते हैं सरासर तरबूज़॥

कितने हैं खाते नज़ाकत से तराश<ref>काटकर</ref> ओस में घर।
ताकि सीना हो ख़ुनुक<ref>ठण्डा</ref>, सर्दी से ठंडा हो जिगर।
कितने शर्बत ही के पीते हैं कटोरे भर-भर।
कितने बीजों को खुटकते हैं खुशी हो-हो कर।
कितने खाते हैं किफ़ायत से मंगा कर तरबूज़॥

मीठे और सर्द हैं इतने कि ज़रा नाम लिए।
होंठ चिपके हैं जुदा, दांत हैं कड़कड़ बजते।
शब को दो चार मंगा कर जो तराशे मैंने।
क्या कहूं मैं कि मिठाई में वह कैसे निकले।
कोई ओला कोई मिश्री, कोई शक्कर तरबूज़?॥

मुझसे कल यार ने मंगवाया जो देकर पैसा।
उसमें टांकी जो लगाई, तो वह कच्चा निकला।
देख त्यौरी को चढ़ा, होके ग़ज़ब तैश में आ।
कुछ न बन आया तो फिर घूर के यह कहने लगा।
क्यूं बे लाया है उठाकर यह मेरा सर तरबूज़॥

जब कहा मैंने मियां यह तो नहीं है कच्चा।
और कच्चा है तो मैं पेट में पैठा तो न था।
इसके सुनते ही ग़जब होके वह लाल अंगारा।
लाठी पाठी जो न पाई तो फिर आखिर झुंझला।
खींच मारा मेरे सीने पे उठाकर तरबूज़॥

क्यूं मियां हमको जो तुम करते हो ककड़ी खीरा।
कोसना हर घड़ी हर आन का होता है बुरा।
तुमको तो पड़ गया मिलने का रक़ीबों से मज़ा।
झूठी क़स्में यह मेरे सर की जो खाते हो भला।
क्या मेरे सर को किया तुमने मुक़र्रर तरबूज़॥

प्यार से जब है वह तरबूज़ कभी मंगवाता।
छिलका उसका मुझे टोपी की तरह देवै पिन्हा।
और यह कहता है कि फेंका तो चखाऊंगा मज़ा।
क्या कहूं यारो में उस शोख़ के डर का मारा।
दो दो दिन रक्खे हुए फिरता हूं सर पर तरबूज़॥

एक बेदर्द सितमगर है वह काफ़िर खू़ंख्वार।
क़त्ल करता है अज़ीज़ों<ref>मित्रों</ref> के तई लैलो निहार<ref>दिन-रात</ref>।
कल मेरा उसकी गली में जो हुआ आके गुज़ार।
इस तरह सरके शहीदों का पड़ा था अंबार।
जैसे बाज़ार में तरबूज़ के ऊपर तरबूज़॥

थी जिन्हें आगे तेरे कंद से होठों पे निगाह।
आरजू ही में वह सब मरके हुए ख़ाक स्याह।
उन शहीदों की भी कुछ तुझको ख़बर है वल्लाह।
बोसे लेने की तमन्ना में थे ख़ाक स्याह।
वही हसरत ज़दा अब निकले हैं बनकर तरबूज़॥

रात उस शोख़ से मैंने यह पहेली में कहा।
भीगी बकरी किसे कहते हैं बताओ तो भला।
इस पहेली के तई सुन के बड़े सोच में आ।
जब न समझा तो कहा, हार के अब तू ही बता।
हंस के जब मैंने कहा ऐ मेरे दिलबर तरबूज़॥

अब तो उस शोख़ का तरबूज़ ही लूटे है मज़ा।
वह तो ठण्डा है वले मेरा जिगर है जलता।
रोना किस तौर ”नज़ीर“ अब न मुझे आवे भला।
फांक बीजों की भरी, लेहै वह जब मुंह से लगा।
तब लिपट जाता है क्या प्यार से हंस कर तरबूज़॥

शब्दार्थ
<references/>