17
तरल मीन
उमड़ा पीर-सिन्धु
गीले कपोल ।
18
कितने हाथ !
छलने को आतुर
छोड़ूँ न साथ।
19
केवल नारी?
नहीं, तुम हो आत्मा
मेरी आराध्या
20
दर्द ही सहे
तू मेरी वसुन्धरा
उफ़ न कहे।
21
मैं अभिशप्त
करूँ तुझे संतप्त
दण्डित करो।
22
दुख ही दिया
जो चाहूँ सुख देना
नियति क्रूर।
23
सिंधु से बिंदु
अलग हो भी कैसे
एकाकार है।
24
विलीन हुई
तरंग सागर में
खोजे न मिली