क्या कभी कर पाऊँगा तुम्हारा तर्जुमा
एक बच्ची की हँसी को
शब्दों में लिख पाना कितना मुश्किल
जैसे खिन्नी और सीताफल के पेड़ को
झाड़ से ज़ियादा क्या लिख सकता हूँ
भुखमरी का कुछ नहीं कर सकता
सरकार की तरह मैं भी विवश हूँ
संस्कृति मंत्री का भाषण नहीं है कविता
कि झट तर्जुमा करके फेंक दूँ
रामपाल, जनकसिंह और प्यारेलाल चपरासी को
किस तरह पलटूँगा किसी पराई भाषा में
अपढ़ माँ जिसे निश्वत कहती थी
उसे रिश्वत जैसा ही कुछ लिख पाऊँगा
पिता के बाज़ार जाने का तो तर्जुमा कर दूँगा
पर उनके ख़ाली झोलों पर क़लम ठहर जाएगी
कविता का चेहरा तो बना लूँगा
पर आँखें बनाने में मुश्किल पेश आएगी
दो बहिनें कभी-कभी बहुत मिलती हैं चेहरे से
जैसे आज सुनी कोई आवाज़
बीस साल पहले सुनी
किसी पहचानी आवाज़ की याद दिलाती हे
इसी तरह का ही कुछ-कुछ
हो सकता है कविता का तर्जुमा