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तलाश / प्रताप सहगल

यह जो धर्म
मेरे पिता ने मुझे दिया
मेरे पिता को
मेरे दादा ने ने
मेरे दादा को
मेरे परदादा ने
यह जो धर्म उससे पहले
उससे पहले
और उससे भी पहले
किसी ने दिया
किसी को
वह धर्म मैं
अपने बच्चों को नहीं दे रहा।

पिता, दादा, परदादा और
किसी की परम्परा से
जो मिला मुझे
धर्म
उसने सबक दिया
महान होने का
और मैंने देखा/धीरे-धीरे समझा
महान बनने से
कहीं मुश्किल है
बनना एक इन्सान।

धर्म आदमी को
इन्सान नहीं
बिना कोई शक्ल-नाम दिए
एक खास तरह का
जानवर बना रहा है
इन्सान नाम की नस्ल को
धरती से मिटा रहा है
तो बोल यार बोल
उस धर्म को मैंने
पांव तले की ज़मीन से
खिसका दिया तो
क्या बुरा किया
बिन चेहरे की इस लाश को
घर के किसी अंधेरे कोने में
दफना दिया तो
क्या बुरा किया।
आज मैं धर्म का एक नया चेहरा
तराश रहा हूं
कबीर और नानक से आगे कोई चेहरा
नहीं खोज रहा कोई नीत्शे का सुपरमैन
न सार्त्र का क्षणजीवी इन्सान
सगुण-निर्गुण के उच्च शिखर
बौने हो रहे हैं
और बौना पड़ रहा है कार्ल मार्क्स।

एक रॉकेट की नोक पर टिका है हमारा अस्तित्व
क्या जवाब है इस सवाल का
किसी के भी पास
ठीक इसी मुकाम पर टूटती है कविता
और उभरने लगता है दर्शन
न सही कविता
दर्शन ही सही।
मुख्तसर-सी बात है
धर्म के बांध टूटें
तो पानी पानी में मिले
पहचान पानी की
बांध की सीमाओं से नहीं
अठखेलियां करती
एक स्वच्छ जलधारा से हो
सड़े पोखर के बजाय
धर्म
क्या एक जलधारा नहीं हो सकता?

1983