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तलाश / रमानन्द रेणु

 
उन्मुक्त आकाशक नीचाँ
सूतल लोक
आइ श्मशानक जिनगी जीबि रहल अछि

धरतीक सन्तान
फराक-फराक तम्बूमे
अपनाकें नुकाब’ चाहैत अछि

जाति आ धर्मक
दुधारी कटार फेकैत अछि
आ जिनगी
लोकोक्तिसँ दूर
एकटा बनल बनाएल सम्बन्ध
तोड़ि चुकल अछि

आइ मानवीयता
छाउरक ढेरी पर खाक बिछैत अछि
टुकड़ीक तलाशमे
मनुक्ख
बौक, बहीर आ आन्हर बनल
घूमैत अछि

जत’ पानि सुसभ्य आ असभ्य होइत अछि
जत’ बसात बासि आ ऊबियाऊ होइत अछि
जत’ धरती आ आकाश आन क्योक अछि
आ जत’ हमरा सभ जे मृत्युक घड़ी गनि रहल छी

की हमरा सभ अपन
सीमासँ बाहरोक जिनगी
कहियो देखलहूँ अछि ?
की हमरा सम
समयक स्वर कहियो सुनलहुँ अछि ?
की हमरा सभ
बाट पर चलैत
दौगैत लोक सभकें
किछु-कहबा-सुनबाक लेल रोकलहुँ अछि ?

विवशताक झुठ आरोप लगा क’
हम, अहाँ, सभ क्यों
मात्र धोखाक जाल बुनलहुँ अछि
आ धोखेमे जीअलहुँ अछि
आ सदिखन
नियतिक दोहाइ देलहुँ अछि

आइ जरूरति अछि
जो विवशताक समस्त कुहेसकें चीरि क’
सभ तम्बूकें समेटि क’
मात्र एक कनात खोलि क’
समूचा आकाशक प्रतिरूप ठाढ़ क’ दी

आइ जरूरति अछि
जे सूर्यक छिड़िआएल समस्त किरणकें
समेटि क’
पाराक गोलीमे बदलि दी

आ जरूरति अछि
जे एक टा टूटैत तागकें
सम्बन्धक गीरहसँ और मजगूत क’ दी

दोस्त !
भरिसक अहाँकें ज्ञात नहि अछि
जे ई टूटब आ फुटकब
हमरा सभ
मात्र अर्थक लोलुप इशारा पर सिखलहुँ अछि

आ तें जरूरति अछि
जे ओहि फोंक इशाराकें हम
अपन फूक भरि क’ तोड़ि दी फोड़ि दी
आ फराक-फराक
पजेबा, सुर्खी आ चूनसँ
हम अपना देशकें
एक टा सही घ बना क’ द’दी
जकर एखनो तलाश अछि