याद नहीं है
कब से खिंची
चली जा रही थी मैं
लहरों की तरह
साहिल की ओर
उसकी तलाश में l
मैं कोशिशों में थी
उसे अपने अंदर समाने की
मगर मेरी मौजें
नियंत्रित थी
मर्यादाओं में l
अब अगर मैं
और जोर लगाती
तो वो हिमाकत
कई घर तबाह कर देती
अपने आक्रोश में l
सो मैं रूक गयी
लेकिन आज भी
मेरे अंतर में उठती लहरें
साहिल तक जाती है
उसकी तलाश में l