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तसल्ली / महेश चंद्र पुनेठा

तसल्ली होती है कुछ
देखता हूँ जब
बस्ते
और माता -पिता की
लैण्टानाई महत्वाकांक्षाओं के
बोझ से दबे बच्चे
निकाल ही लेते हैं खेलने का समय
ढूँढ़ लेते हैं एक नया खेल
समय और परिस्थिति के अनुकूल

पतली गली में हो
या छोटे से कमरे के भीतर
या फिर कुर्सियों के बीच
मेज़ के नीचे
चाहे स्थान हो कितना भी कम
बना ही लेते हैं वे
अपने लिए खेलने की जगह
जैसे अबाबील
ढूँढ़ ही लेती है घर का कोई कोना
अपना घोंसला बनाने को
तमाम चिकनाई के बावजूद ।