है बदलता आस में पन्ने कलेंडर
पर छला जाता है बस प्रस्ताव से
ताख पर सिद्धांत
धन की चाह भारी
हो गया है आज
आँगन भी जुआरी
रोज ही गंदला रहा है आँख का जल
स्वार्थ-ईर्ष्या के हुए ठहराव से
ढल रहा जो वक्त
उसकी चाल का स्वर
कह रहा है आगमन का
वक्त बदतर
पर कहाँ नजरों में सम्यक भाव जागा
एक चिंता सिर्फ अपने घाव से
जी रहा जो वृहनला का
रूप धरकर
यदि जगे उस पार्थ के
गांडीव का स्वर
तो सुरक्षित हो सकेगा देश अपना
स्वयं पर ही हो रहे पथराव से