ताज़िरात की धाराओं में
भूख-प्यास को बाँध रहे हैं,
नागर हों या ग्राम्य सभी को
मुज़रिम जैसा राँध रहे हैं।
आदमक़द लोगों के आगे
लगती है ये बौनी पिद्दी-
न्यायालय का परिसर हो
या जेल-कचहरी की चौहद्दी।
अहलकार, मुंसिफ, वकील
सब अपना मतलब साध रहे हैं।
शील आचरण की हहराकर
आज अचानक गिरी इमारत,
बेवा-सी मुँह लिए खड़ी है-
धूरे पर असहाय शराफ़त।
जीवन की लक्ष्मण रेखाएँ
जानबूझकर लाँघ रहे हैं।
मसले-दर-मसले लटके हैं,
महज पेशियों पर बरसों से,
चलकर आज पहाड़ हुए वो
फल जो थे राई-सरसों-से।
वर्तमान को मार-काटकर
हम फ्रे़मों में टाँग रहे हैं।
ताज़िरात की धाराओं में।
भूख-प्यास को बाँध रहे हैं।