गरीब को
जो भी मिला
विरासत मे मिला है।
पीढ़ी दर पीढ़ी
पुश्तैनी कर्ज
जिसमें रोज
कुछ बढ़ोतरी होती है
एक घूंट पानी की तमन्ना
एक जोड़ा जूती का जुगाड़
रंबे, खुरपे व दराती की जरूरत
मौसम-बेमौसम चटनी
प्याज की महक
ठण्डी बासी रोटी के लिए
जमीन गिरवी रखने की नौबत।
हाथ से खिसकती
धरती के साथ-साथ
बढ़ता चला जाता है
कर्ज का बोझ
झुकती चली जाती है कमर
मिटती चली जाती है
कमर और पेट की
असल पहचान
और
खुदती जाती है कब्र।
बस इतनी सी है
मेरे पास
लाचार पेट की
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