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ताटंक छंद / अनामिका सिंह 'अना'

1-
समरसता अब लुप्त हो गई, आज हृदय में जाले हैं।
नफरत की दीवार खड़ी है, अंतस सबके काले हैं॥
सुलग रहा है ज़र्रा-ज़र्रा, अम्न जल रहा है धू-धू।
शांतिदूत हो चले निकम्मे, जितनी हो कम है थू-थू॥

2-
हिन्दू, मुस्लिम सिख ईसाई, सब में भाई चारा हो।
जाति पाँति का भेद खत्म हो, सरल प्रेम की धारा हो॥
ऊँच-नीच की कटें सलाखें, क्यों धर्मो का पंगा हो।
मंदिर-मस्जिद गुरुद्वारों की, केवल शान तिरंगा हो॥

3-
यह जीवन है अजब पहेली, राज न कोई जाना है।
कब उड़ जाये कैद परिंदा, कब तक ताना बाना है॥
माटी की है देह मनुज की, माटी में मिल जाएगी।
मेलजोल से रहें सभी जन, सबको दुनिया भायेगी॥

4-
ऋतु पावस की आयी भीनी, सुरसरि सर हर्षाये हैं।
शाख-शाख अब सजी प्रसूनों, मेघ गगन पर छाए हैं॥
कजरी-ठुमरी गातीं सखियाँ, डाल-डाल पर झूले हैं।
दूर गए सावन में साजन, ऋतु भी शायद भूले हैं॥

5-
छायीं हैं घनघोर घटाएँ, छम-छम बारिश आई है।
मौसम ने भी धानी चूनर, धरती को ओढाई है॥
मोर पपीहा दादुर सारे, झूम-झूमकर गाते हैं।
कृषक घूमता है खेतों में, बच्चे नाव चलाते हैं॥