नील गगन के शुचि प्रांगण में, झिलमिल क्यों करते नादान?
सुनते हो क्या थर-थर मन से, तुम मेरा संकल्प आह्वान॥
काँपा करते हो या भय से, अपने मन में, हे सुकुमार!
करलें कहीं न नभ पर किंचित्, ये आँसू अपना अधिकार॥
इधर-उधर बिखरा करते हैं, प्रिय भोले-भाले अनजान।
माँ वसुन्धरा की गोदी में, हो जाते हैं अन्तर्धान॥
तजो वृथा भय की आशंका, करो नहीं स्वच्छन्द विहार।
नहीं पहुँच पावेंगे नभ तक, मेरे ये आँसू दो-चार॥