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तालाबी पंखेरू / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

माघ मकर संक्रान्ति उषा का आनन सस्मित,
अलकतरा-सा काला कुहरा नभ में मुद्रित।
उदयोन्मुख अरुणाभ सूर्य्य पूर्वीय क्षितिज का,
उदयाचल के शिखरों में गोरज-सा फीका।

भ्रम के कृष्ण तन्तु ने बुनकर छाया-अम्बर,
अन्ध आवरण डाला सूने दिगदिगन्त पर।
दूर-दूर तक जिधर दृष्टि जाती है पैनी,
देख रहा छाया-आभा की आँख मिचौनी।

गाँव न कहीं, न कहीं पंथ का पता-ठिकाना,
चलना केवल किसी दिशा में चलते जाना।
सूई-सी चुभती तन में सन्-सन् पुरवाई,
पड़ी धरा चुपचाप ओढ़कर हरी दुलाई।

विवर-शून्य अजगर-से टेढ़े-मेढ़े नाले,
सोए अलस शीत-निद्रा में ज्यों मतवाले।
केवल यत्र-तत्र तटपर मछुओं के छाजन,
छोटे-छोटे निर्मित, सरपत जिनके ‘च्छादन।

आस-पास चौरस खेतों में तितरे-बितरे,
मटर, केराब एक-दूसरे पर चढ़ छितरे।
भौगर्भिक उर्वरा-शक्ति ने मादकता भर,
हरियाली बिखेर डाली पृथ्विी के ऊपर।

छोटा-सा तालाब यहीं पर एक मनोहर,
निर्जन में सुषमालोकित ज्यों मानसरोवर।
वर्ण-वर्ण के विहग-स्वरों से कलरव-पूरित,
वर्ण-वर्ण की पर्ण-लताओं से अवगुण्ठित।

जीवन के संचित मंगल मधुघट से सिंचित,
कोलाहल से दूर, शान्त मुद्रा में चित्रित।
जहाँ खड़े सिलही कछार में सवन, सीखपर,
और विचरते लगभग, घोंघिल, जांघिल, गैबर।

गीली धरती पर ढीले कीचड़ से लथपथ,
खोज रहा लोहासारँग निज भूला-सा पथ।
जहाँ विरागी आँजन बगुला ध्यान लगाए,
एक टाँग पर खड़ा किनारे तन सिकुड़ाए।

मखमल की टोपी पहने कलपेटी कुररी,
लगती चित्ताकर्षक, टिकरी दल से बिछुड़ी।
काले औ’ सुफेद निर्भीक विहरते,
तिमिर-ज्योति के द्वैत-बिम्ब प्रस्तारित करते।

भूरी दुम की चैती जल के पिछले तलपर,
घनी घास की जड़ें नोचती ऊब-डूबकर।
चकई-चकवा मिलन-सूत्र मंे बँधे अखण्डित,
प्रेम-तत्व के मधुर स्रोत करते संचारित।

मादा के प्रसन्न करने की कला दिखाता,
नर-बत्तख दोनों पैरों से जल उछालता।
टिटिहरियाँ वह आगे-आगे दौड़ी जातीं,
जोर-जोर से ‘डिड ही डू इट’ शोर मचातीं।

मकड़ी की-सी लम्बी-लम्बी टाँगें रखकर,
टीभू दौड़ लगाती दलदल में शतदल पर।
अपत ठूँठ पर बैठी नागिन पंख फुलाकर,
लाल छौंह पुतली फड़काकर उड़ा लालसर।

घूम-घूम घिरती-सा घिरिन-परेवा सुन्दर,
ढेले-सा वह गिरा शून्य से जल पर मरकर।
ऊपर पूँछ उठाती नीचे तुरन्त गिराती,
चारुदर्शिणी खंजन प्राकृत कला दिखाती।

दाबिल, दहक, तिदारी अन्य अनेक विहंगम,
करते जहाँ विनोद-नृत्य कल क्रीड़ा हरदम।
कोई चम्पा-से चटकीले, कोई सादे,
कोई लगते काले पहने मैल लबादे।

कोई पीत सिलेटी, कोई गहरे भूरे,
कोई नील सिलेटी, कोई हल्के भेरू।
कोई चूने-से सुफेद, कोई कजरीले,
कोई नारंगी-से, रीठे-से चमकीले।

चोंच किसीकी दाबिल-सी चपटी कोदैली,
और किसीकी बरछी-सी तीखी मटमैली।
किसी-किसीकी सींकी-सी चिकनी, धूमैली,
किसी-किसीकी छोटी खुरपी-सी छितरैली।

सीधी आड़ी-सी, हँसिया-सी वक्र किसीकी,
संठी-सी पतली दूधैली चोंच किसीकी।
किसी-किसीके सीने में ललछौंह चकत्ता,
कहीं किसी के डैने पर बादामी चित्ता।

चरण किसी के दोफंकी टहनी-से छितरे,
और किसी के जुटे परस्पर भूपर चतरे।
कोई रहते घोंघे, कटुए, मेढ़क खाकर,
कोई नरई, मोथे, करमी, गोंद चबाकर।

कितने आए हिम-आच्छादित शैल पारकर,
कितने वन-उपवन, मरुथल, मैदान पारकर।
किनते गर्मी के आते ही दीख न पाते,
कितने बारहमास यहीं पर दिवस बिताते।

एक-दूसरे को ढकेल करते हुरदंगे,
एक-दूसरे से सुन्दर बहु रंग-बिरंगे।
स्थूल दृष्टि देखा करती है एक रूप को,
विविध रूप में नामजगत के व्यक्त रूप को।

सूक्ष्म दृष्टि को गोचर होते एक भाव से
विविध भाव अव्यक्त वस्तु के एक भाव से।
विविध वर्ण के विहग-वृन्द जल में प्रतिबिम्बित,
एक वर्ण में रूप-सरोवर के आलोकित।

एक वर्ण के विहग क्षितिज पर स्वप्नाभासित,
वर्ण-वर्ण के रंँग आभरणों में अभिव्यंजित।
सुन्दर इनका रहन-सहन, सुन्दरतर पावन,
सुन्दर असन, विभूषण सुन्दर, सुन्दर भाषण।

सुन्दर इनका जगत, न जिसमें तन को बन्धन,
सुन्दर इनका जगत, न जिसमें मन को बन्धन।
सुन्दर इनका मिलन, न उरसे उरका गोपन,
सुन्दर इनका रमण, न लज्जा का उद्बोधन।

सुन्दर इनका भवन, प्रकृति का विस्तृत प्रांगण,
सुन्दर इनका सामूहिक यह कला-प्रदर्शन।

यह वसुन्धरा कभी न लगती इतनी प्रियकर,
लता, कुंज, द्रुम लगते केवल मूक, तुच्छतर।
यदि न विश्व की वंशी में सुर का सरगम भर,
छन्द बजाते समुच्छ्वसित खग मधुर महत्तर।

प्रकृति-पृष्ठ पर धूप-छाँह का पट-परिवर्तन,
हर्ष-शोक से अभिशापित जीवन-क्रम के क्षण।
स्वराकर बन वाणी मेरी कल-कूजन कर
लाओ प्रगति-चेतना मृत साँसों में सुखकर।

(रचना-काल अगस्त, 1944। ‘विशाल भारत’, अक्तूबर, 1944 में प्रकाशित।)