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तितली / चंद्रप्रकाश देवल

तितली अब मेरे बग़ीचे में नहीं आती
रास्ता भूलने की तो बात ही कहाँ
वह तो उड़ती-उड़ती आती है
और उड़ती-उड़ती जाती है

ज़माने में और कहीं फूल-ही फूल खिल गए हों
यह भी नहीं सुना
मेरे फूलों की ख़ुशबू कम हो गई हो
ऐसा भी नहीं जाना

बसंत भी ऋतु-चक्र में अब तक है
देर-सबेर आता भी है
पर तितली मेरे बग़ीचे में नहीं आती

पता ठिकाना होता
तो मान-मनुहार की चिठ्ठी भेजता
बल्कि हो सकता है उसे मनाने को
चलकर उसके घर जाता
सारे जतन करता
पर अब तितली नहीं तो
मैं अपने बग़ीचे को बग़ीचा कैसे कहूँ
लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे
कि मेरे बग़ीचे में तितली भी नहीं आती

यह कोई असाधारण नहीं
साधारण-सी बात है
कि तितली नहीं आती
पहले आती थी
तब फूल, हरियाली, सुगंध और रंगों को
मुक्ति दे जाती थी
वह चाँदनी को भी अर्थ दे जाती थी

वह बग़ीचे की तरह
कविता में भी अच्छी लगती थी
यहाँ तक कि पाठक भी ईर्ष्या से भर जाते थे
कि किसी कवि के ख़याल में तितली आती है

एक उसके आ जाने से
प्रत्येक गाछ-बिरछ का रुतबा बढ़ जाता था
सभी फल अचानक हरे-भरे हो जाते थे
अंतस में ठंडक व्याप्त हो जाती थी
उसके आते ही
पता नहीं कहाँ से चली आती थीं ढेर-सी आशाएँ
यह भी, वह भी
सभी कुछ सँवर जाएगा
यह खुरदरा संसार भी मुलायम हो जाएगा

उसकी आमद एक उम्मीद जगाती थी
और प्रतीक्षा में पथराई आँखें भर आती थीं
पर करूँ क्या
अब अनिष्ट की परछाँई झिलमिलाती है
कि इन दिनों मेरे बग़ीचे में तितली नहीं आती है
पहले की तरह
हैं अभी जस-के तस
दुनिया में युद्ध, ग़रीबी, महामारी और पीड़ाएँ
नहीं हैं तो बस, एक तितली नहीं है |

अनुवाद : स्वयं कवि