कौन पोंछेगा
हमारे चेहरे से लहू
पहनाकर हमें काँटों के ताज
बढ़ गये काल की पगडंडी पर
दिग्विजयी नेता
युद्धों के प्रणेता
अपने नाम कब की है उन्होंने
हमारी वसीयत
मर रही है अब भी
एक खामोश मौत
बहते-बहते अब तक हो सकीं
बुत
बन सकीं मुर्तियाँ
जिनके चेहरों पर लद गया
असंख्य हाथों का बोझ
मरने के बाद भी
ढोती रहीं पवित्रताओं के पिटारे
वक्ष में
इतिहास का खंजर गड़ा है
हथेलियों पर भविष्य
पारे-सा पड़ा है
आत्मा से अहं
फिर भी बड़ा है
कहाँ होगा
हमारे इस सफर का अंत
कब निकलेंगे छाती से
सभ्यताओं के डंक
हर डाकिये-युग के
थैले में बंद चिट्ठियाँ हैं
हम तिथियाँ हैं.