हैं खुद को मिटाते नहीं आन देते,
लहू को बहाकर भी सम्मान देते।
औ माता के चरणों में लाशें बिछाकर,
तिरंगे की ख़ातिर हैं हम जान देते॥1॥
चाहे बर्फ पिघले घनी वादियाँ हों,
हो आँधी या तूफाँ की बरबादियाँ हों।
मग़र न क़दम अपने पीछे हटाते,
हैं दुश्मन की छाती पै हम चढ़ते जाते।
लहू को बहाकर के भारत की ख़ातिर,
हैं अपने वतन को भी अभिमान देते॥2॥
तिरंगे की ख़ातिर...
कि जब तक यहाँ पर खड़े हम हैं जिन्दा,
न पर कोई भी मार सकता परिन्दा।
जो आयेगा दुश्मन उसे फ़ाड़ देंगे,
औ धरती में जिन्दा उसे गाढ़ देंगे।
नहीं छूने देंगे यूँ माता का दामन,
हैं करते शपथ बस यही ठान लेते॥3॥
तिरंगे की ख़ातिर...
सुनो भाइयो हमको गाली न देना,
यूँ सम्मान हमको तो जाली न देना।
अग़र कह न पाओ हमें तुम जो अच्छा,
कभी नाम हमको मवाली न देना।
भले ओढ़ते हम कफ़न निज बदन पर,
मग़र आपको तो हैं मुस्कान देते॥4॥
तिरंगे की ख़ातिर...
है घर-बार अपना है परिवार अपना,
मग़र सरहदों पै है यह एक सपना।
जुदाई तो सह लेते हम उनसे यारो,
मग़र चाहते मुल्क़ का प्यार अपना।
महीनों तलक दूर रहकर भी उनसे,
सभी भावनाओं का हम दान देते॥5॥
तिरंगे की ख़ातिर...
चाहे कोई नेता बिके या अधिकारी,
कोई मन्त्री बिक जाये या कुर्सीधारी।
मग़र हम न बिकते न झुकते कभी भी,
हैं हम मौत की रोज़ करते सवारी।
हो जब आप करते हमारी प्रशंसा,
उसे अपना उपहार हम मान लेते॥6॥
तिरंगे की ख़ातिर...
हैं शत्रु के आगे नहीं डगमगाते,
उन्हें फ़ाड़ कर के लहू हम बहाते।
हजारों लगें गोलियाँ छातियों पै,
मग़र पीठ अपनी न हरगिज़ दिखाते।
औ घर ओढ़ कर हम हैं आते तिरंगा,
तो ख़ुद को शहीदों की पहचान देते॥7॥
तिरंगे की ख़ातिर...
हो गोली या बम की ही बौछार हम पर,
भले राइफल से भी हो वार हम पर।
हमारे बदन का लहू सारा निकले,
चाहे खंजरों की चले धार हम पर।
मग़र फिर भी बलिदान की इस शमाँ को,
बना अपने लोहू से दिनमान देते॥8॥
तिरंगे की ख़ातिर...
कभी क्षत-विक्षत अंग होते हमारे,
बदन से हैं चलते लहू के फ़व्वारे।
हैं शत्रु के द्वारा कभी शीश कटते,
मग़र बिन सरों के लड़ें धड़ हमारे।
यूँ बलिदान होकर तिरंगे को "रोहित" ,
हिमालय से ऊँचा हैं हम तान देते॥9॥
तिरंगे की ख़ातिर...