तीरन्दाज कहावहीं, धरनी लोक अनेक।
शब्दंदाजी साधुजन, कोटि मांह कोइ एक॥1॥
धनुहा लै हृदया धरी, वाण शब्द तेहि लाव।
धरनी सुरति कसीस करि, भावै तहाँ चलाव॥2॥
धरनी धनुहा हृदय करु, वचन वाण धरु लाय।
निरखि निशाने डारिये, खाली चोट न जाय॥3॥
धरनी काय-कामना है, तीर शब्द है साँच।
निर पंछी होइ रण करै, तासो कोइ न बाँच॥4॥
वाण बनो गुरु-शब्द को, गहि कर आन कमान।
धरनी चित चिन्ता करो, हन अनहद असमान॥5॥
काय तुपक दारु दया, सीसा सोच सुढारु।
कौडी कर्म निशान है, धरनी मारु उतारु॥7॥
तनकी तुपक तयार मन, सींग सहज गजवान।
जीव-दया धरु जामुगी, धरनी कर्म निशान॥8॥