ओ, उतर उतर
नभ से भूपर
नव ज्योति-किरण
कर तिमिर-हरण
फैले प्रकाश
के स्वर्णिम कण।
हो नया प्रात
हो नई बात
वह गई रात
तम लिये साथ
हों नये गीत,
स्वर, नये छन्द
कलरव करते
उड़ विहग-वृन्द
बरसावें रस
धारा अमन्द।
खिल उठें सुमन
हो मधु गुंजन
बिखरे भू पर
सौरभ के कण।
लहरों में हो
नूतन जीवन
धारा में हो
नव परिवर्तन
मानव मानव
का स्नेह-मिलन
हो कर इतिहास
लिखे नूतन।
हों देह भिन्न
पर प्राण एक
हों स्वर विभिन्न
पर गान एक।
औ’ श्वास एक
हो क्यों न
हृदय का मर्म एक
जब लक्ष्य एक
औ’राहएक
हो क्यों न
हमारा धर्म एक।
हों अश्रु एक
हो हास एक
हो भूख एक
हो प्यास एक
हो पतझड़ औ’
मधुमास एक।
जब धरा एक
आकाश एक
हो विश्व एक
विश्वास एक
मानव का पूर्ण
विकास एक
मानवता का
इतिहास एक।
मानव मानव
का भेद-भाव
करने वाले
कृत्रिम प्रभाव
हट जायँ दूर
मिट जायँ क्रूर।
बंदी मानव
हो मुक्त मगन
धरती का हो
पुलकित कण-कण।
तब हो मानव
का मूल्यांकन
मानवता का
खुल अवगुण्ठन
कर ले मानव
का मृदु चुम्बन।
दोनों का हो
चिर आलिंगन
हो नवल सृष्टि
तब निश्चय ही
इस वसुधा पर
होगी मंगलमय
सुमन-वृष्टि।
जागरण-चेतना
के नव स्वर
वीणा में भर
गूंजे घर-घर।