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तुझ में तुझ से अलग जो है पलता / महेश अश्क

तुझ में तुझ से अलग जो है पलता।
काश तुझको भी कुछ कभी खलता।।

आँख, वो सब पकड़ नहीं पाती
होंठ और कान में जो है चलता।

इतनी परछाइयों में रहते हो
तुम कहाँ हो पता नहीं चलता।

मैं बताता कि रात का क्या हो
मेरे कहने से दिन अगर ढलता।

हम भी होते हैं अपनी बातों में
काम लफ़्ज़ों ही से नहीं चलता।

तुम अन्धेरों को अपने देखो तो
कुछ कहीं है चिराग़-सा जलता।

जो न होना था वो हुआ आख़िर
आदमी हाथ रह गया मलता...।