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तुफ़ैल चतुर्वेदी / परिचय

परिचय

तुफैल साहब का नाम शाइरी की दुनिया में बहुत जाना पहचाना नाम है.1961 में जन्में तुफैल का वास्तविक नाम विनय कृष्ण है ......... विनय से वे 'तुफैल' कब और कैसे बन गए, उन्हें खुद भी याद नहीं ....... तुफैल साहब मूलतः उत्तराखंड के काशीपुर जमीदारों परिवार से तआल्लुक रखते है.......बचपन उसी शानो-शौकत में बीता. सेब के बाग-बगीचों में घूमते हुए दिन बीत रहे थे कि हज़रत ने कहीं दाग साहब का शेर पढ लिया ’’कि हाय किस वक्त कम्बख्त खुदा याद आया’’...... इस शेर ने तुफैल को शायरी के पाश में ऐसा जकडा कि तुफैल साहब आज तक उसी जादू में बधे हुए हैं. तुफैल ने अपनी शाइरी तब शुरू की जब वे स्कूल में थे........ये शाइरी आज तक जारी है! नैनीताल से स्कूल, कालेज के दौरान ही शेर कहने-पढने का ऐसा चस्का लगा कि अब वही उनकी दुनिया हो गयी है.

सम्पादन

आजकल वे 'लफ्ज़ ' पत्रिका का सम्पादन कर रहे हैं जो हास्य व्यंग्य और गजल छापने वाली पत्रिकाओं में अव्वल नम्बर की पत्रिका है. तुफैल साहब इससे पूर्व पाकिस्तानी व्यग्यकार - मुशताक अहमद युसुफी की तीन रचनाओं का उर्दू से हिन्दी अनुवाद कर चुके हैं,जो जबरदस्त लोकप्रिय रहे.......’खोया पानी’ ,’मेरे मुह में खाक’ और ’धनपात्र ’ नाम से इन उपन्यासों ने हिन्दी पाठकों को श्रेष्ठतम उर्दू व्यंग्य पढने का मौका दिया . तुफैल साहब की शख्सियत एकदम अलग और एकदम बिन्दास है..... अपनी पसन्दगी या नापसन्दगी को वे कभी नहीं छुपाते.............अगर कोई चीज उन्हें पसन्द नहीं , तो खुले आम उसे जाहिर भी कर देते है. यही बात वे गजलों पर भी लागू करते है, अगर उन्हें कोई गजल या शाइर पसन्द नहीं है तो उसे खुल के वे नकारते हैं..........यह अलग बात है कि वे जब ऐसा करते हैं तो ऐसा करने के पीछे वे कारण भी गिनाते हैं ,जिन्हें काटना आसान नहीं होता. आज के समय में कई बडे नामचीन शाइरों से तुफैल का ’डिफरेन्स' इसी वजह से है. कारण साफ है तुफैल को जो कुछ कहना है..........बिना लाग-लपेट के कह ही देते है, अंजाम बला से ........!

तुफैल ’93 में काशीपुर ,नैनीताल होते हुए नोएडा आ गए, और फिर यहीं के हो कर रह गए. विवाह किया और अब तो साढे-तीन साल के बच्चे के पिता भी हैं...... ! शुरुआत में ’रसरंग’ नाम से संकलन निकाला, रासरंग बाद में ’लफ्ज’ में तब्दील हो गयी जो अभी तक मुसलसल प्रकाशित हो रही है. वैसे तो तुफैल साहब ने शाइरी में किसी को उस्ताद नही बनाया मगर कृष्ण बिहारी 'नूर' की कुर्बतें उन्हें जरूर मिलीं. शायरी का शौक और साथ में अध्यात्म.........यह भी एक साथ दौर चला, 12 वर्षो तक साधू के वेश में वे मंचों से शेर पढते रहे. बहरहाल आज के तुफ़ैल चतुर्वेदी से आप मिलें तो लगेगा कि वे बिगडैल किस्त के व्यक्ति है....... गलत बात पर भड़क जाते है, छोटो से स्नेह भी रखते है औरउन्हें मौके बेमौके लताड़ भी लगाते रहते है. फक्कडी स्वभाव के हैं सो खुद को ’बाजार’ से दूर ही रखा है, ’मार्केटिंग' के सारे गुर जानने के बाद भी ’मार्केटिंग से बचते हैं........फिलहाल ’लफ्ज’ को चलाने की जिद में अपना प्लाट बेच चुके है........कहते है कि अच्छी शायरी को पाठकों सामने लाना मेरा ’ध्येय है,जो मैं किसी भी कीमत पर करूंगा.....!