Last modified on 17 फ़रवरी 2019, at 18:28

तुमने कहा — प्रेम / संजय शाण्डिल्य

तुमने कहा — प्रेम
और
क़लम की नोक पर उछलने लगे अनायास
अनजाने जानदार शब्द

कूँचियों से झड़ने लगे
सपनों के रंग

फूट पड़ा सामवेद कण्ठ से

तुमने कहा — प्रेम
और
हृदय के भूले कमलवन में
दौड़ने लगी
नई और तेज़ हवा वासन्ती
मन की घाटी में गूँजने लगा
उजाले का गीत

खिल उठा ललाट पर सूर्य
चन्दनवर्णी

उफनने लगी
आँसूवाली नदी

तुमने कहा — प्रेम
और बिछ गई यह देह
और तपती रही...तपती रही...

फिर तुमने क्यों कहा — प्रेम ?