तुमने वस्त्र भिगोए, फींचे-
हमने धोए और खँगाले।
अलग-अलग बैठे सुख टूँगे,
सुंदर को देखा-भोगा जब
लगा कि जैसे हों दो गूँगे;
जब-जब डोल कुएँ में डाले,
चार-चार हाथों से खीेंचे।
सोच-समझ कर मंडप-माँझे,
लिए हाथ में हाथ किंतु वो
संस्कार थे या फिर साँझे।
बोये बीज परस्पर सींचे।
अपनी-अपनी पार संभाले।
वैसे तो प्राणी स्वभाव से,
एक-दूसरे के पूरक हम
एक-दूसरे को अभाव से।
अँधियारे हों या कि उजाले
ठोस जमीं पैरों के नीचे।
रिश्ते मुझे कटखने लगते,
प्रेम-घृणा के घाल-मेल ये-
दो दिन बाद खटकने लगते।
मेरे तीर तुम्हारे भाले,
चले परस्पर आँखें मींचे।