मैं जमा करती हूँ अपने अन्दर
दुखों के छोटे-छोटे टुकड़े
ज्यों चीटियाँ जमा करती हैं दाने
कुछ बेहद बुरे दिनों के लिए
जब कभी आसपास कमी हो जाती है नमी की
शब्द छोड़ने लगते हैं मेरा हाथ
आस पास की आवाज़ें तैरने लगती हैं रेत के समन्दर में
खुलती है मन की एक नन्ही-सी खिड़की
और पिघलने लगते हैं वह सहेजे गए टुकड़े
नीली नदी के बहाव में डूबती-उतरती मैं
तैयार हो जाती हूँ फिर दुनिया के लिए
उसके भेजे तमाम स्याह, धूसर दिनों के लिए
दुख, तुम बने रहना मेरे चिर संगी
कि तुम्हारे रहने से ही है मेरी कविता
और मैं