राग शंकरा, तीन ताल 27.9.1974
तुमसों कैसे नेह लगै।
दारु सरिस या नीरस उरमें कैसे प्रीति जगै॥
तन-धन जन की ममता ठगिनी बहु विधि मनहिं ठगै।
माया की छाया में भूल्यौ कैसे पार लगे॥1॥
मान गुमान शान के मद में इत-उत वृथा भगै।
स्वारथरत चित में कैसे करि तुव पद-रति उमँगै॥2॥
काम दामसों<ref>कामरूपी रस्सी अथवा काम और धन</ref> बँधे हिये में कैसे भजन जगै।
तुमहीमें ममता न होय तो क्यों तुअ लगन लगै॥3॥
कहा कहें यह अपनो ही मन आपुहिं सदा ठगै।
सबहीसों हो विमुख न जब लौं क्यों तब तृषा जगै॥4॥
ह्वै अनन्य जो भजै तुमहिं तो क्यों मन कहूँ भगै।
एकमात्र जब होय तिहारो काहे न प्रीति पगै॥5॥
शब्दार्थ
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