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तुम्हारा अपना / निश्तर ख़ानक़ाही

जाँ भी अपनी नहीं, दिल भी नहीं तन्हा अपना
कौन कहता है कि दुख-दर्द हैं अपना-अपना
 
दुश्मन-ए-जाँ ही सही, कोई शनासा* तो मिले
बस्ती-बस्ती लिए फिरता हूं सराया अपना
 
पुरसिशे-हाल* से ग़म और न बढ़ जाए कहीं
हमने इस डर से कभी हाल न पूछा अपना
 
ग़ैर फिर ग़ैर है क्यों आए हमारे-नजदीक
हम तो खुद दूर से करते हैं तमाशा अपना
 
लड़खड़ाया हूं, जो पहले तो पुकारा है तुम्हें
अब तो गिरता हूं तो लेता हूं सहारा अपना
 
अब न वो मैं हूं न वो तुम, न वो रिश्ता बाकी
यूं तो कहने को वही मैं हूं 'तुम्हारा अपना'

1. शनासा-परिचित

2. पुरसिशे-हाल- हाल पूछना