Last modified on 23 जून 2010, at 11:37

तुम्हारा चुंबन / सुशीला पुरी

तुम्हारा वह चुम्बन
जिसमें घुली होती है
ईश्वर की आँख
जो झंकृत करती रहती है
अनवरत मेरे जीवन के तार
 
उनमें भीगा होता है
पूरा का पूरा समुद्र
पूनम के चाँद को समेटे
नहा लेती हूँ मै
अखंड आर्द्रता
चांदनी ओढ़ कर

वहाँ विहँसता है बचपन
और घुटनों के बल
सरकता है समय
अपनी ढेर सारी
निर्मल शताब्दियों के साथ

सहेज लेती हूँ मैं उसे
जैसे सहेजती है माँ
पृथ्वी की तरह गोल
अपनी कोख ।