तुम्हारा जन्मदिन
चुप्पियों के साये में
चहलक़दमी करते
मेरे मौन को खुरचता है
असावरी के कोमल ऋषभ
कि तरह आती है तुम्हारी याद
"मुन्दरी मोरी काहे को छीन लई<ref>राग अड़ाना की चर्चित बन्दिश</ref>"
कि मेरी आँखों में बसती है
तुम्हारी यादों की मुन्ददरी
तुम्हारी याद राग सोहनी है
जिसकी प्रकृति चँचल है
तुम्हारी तरह
यूँ तुम्हारी याद
जैसे राग तोड़ी में गाँधार
और तुम्हारे जन्मदिन पर तुम्हारी याद
जैसे कुमार जी की धनवसन्ती
जो कभी पूरिया धनाश्री तो कभी वसन्त का आभास
ये मेरे मौन के साथी हैं
मेरी वाचालता में भी
मेरा मौन साथ चलता है
नहीं समझ पाया जुगलबन्दी को
तुमने ही तो कहा था
सँगत करने से हम आत्ममोह से बचे रहते हैं
यह कैसी सँगत है, प्रिये !
कि तुम लगातार आगे बढ़ती गईं
और मैं ठहरा ही रहा
कभी पीछे मुड़ कर देखना
मैं यहीं इन्तज़ार करता मिलूँगा
तुम्हारे जन्मदिन के दिन तक
बस, तुम ही नहीं होती हो
अपने ही जन्मदिन पर ।