तुम्हारा जो प्रेम अनन्त है, जिसे प्रस्फुटन के लिए असीम अवकाश चाहिए, उसे मैं इस छोटी-सी मेखला में बाँध देना चाहता हूँ!
तुम मेरे जीवन-वृक्ष की फूल मात्र नहीं हो, मेरी सम-सुख-दु:खिनी, मेरी संगिनी, मेरे अनन्त जन्मों की प्राणभार्या हो!
तुम्हें मेरे सुख में सुखी होने-भर का अधिकार नहीं, तुम मेरे गान की लय हो, मेरे दु:ख का क्रन्दन, मेरी वेदना की तड़प, मेरे उत्थान की दीप्ति, मेरी अवनति की कालिमा, मेरे उद्भव का आलोक और मेरी मृत्यु की अखंड नीरव शान्ति भी तुम्हीं हो!
प्राण, यदि मैं तुम्हें बाँधना चाहूँ तो तुम वे बन्धन काट डालो!
दिल्ली जेल, 25 फरवरी, 1933