तुम्हारे सूर्य को अर्ध्य देते
मेरे हाथों का कम्पन
तुम जानते भी कैसे
समूची चेतना से
थामे रही मैं कलश
तुम्हारे अराध्य की
महिमा से अविभूत
धूप/दीप/नेवेद्य के मूल्य को
रत्ती-रत्ती पहचानती.
तुम्हारे सूर्य को अर्ध्य देते
मेरे हाथों का कम्पन
तुम जानते भी कैसे
समूची चेतना से
थामे रही मैं कलश
तुम्हारे अराध्य की
महिमा से अविभूत
धूप/दीप/नेवेद्य के मूल्य को
रत्ती-रत्ती पहचानती.