ठिठुरन भरी सर्दी की धूप में
दीप्त है तुम्हारे चेहरे का अलौकिक तेज
शुद्ध सारंग की किसी रचना के साथ
तुम धीरे-धीरे छू रही हो वीणा के तार
तुम्हारी उदासी में
ठहर-सी गई है हवा
बेचैन हैं नीले और सफ़ेद फूल !
पीठ पर शब्दों का थैला लादे
मैं, किसी पोस्टमैन-सा दौड़ रहा हूँ
तुम्हारे इर्द-गिर्द, परिक्रमा की मुद्रा में
मेरे लिए तुम बन गई हो पृथ्वी !
मेरे थैले में,
मैंने करीने से सम्भाल कर रखे हैं
कई महाकाव्य
उन्हें पढ़ते हुए मैं अक्सर
उलझ जाता हूँ उनके रचनाकारों से
बड़े रोष के साथ मैं कहता हूँ अपनी बात
मुझे शिकायत होती है
इनके कई पात्रों के चरित्रों से
वाल्मीकि और वेदव्यास बड़े स्नेह से
रखते हैं मेरे सर पर हाथ
वे जानते हैं कलयुग में
जटिल हो गई है मानवता
तेज़ी से बदले हैं मूल्य और संस्कार
हज़ारों साल पहले लिखे गए ग्रन्थ कैसे बदलते ?
स्त्री पर लिखने के लिए कोई काव्य
झाँकना पड़ता है उसकी आत्मा में
रोना पड़ता है उसके साथ साथ
तब जाकर तुम जान पाते हो
सृष्टि के आरम्भ से आज तक
उसे कितनी प्रतीक्षा रही है न्याय की !
सीता, उर्मिला, कुन्ती और द्रौपदी
इन सभी पात्रों में
तुम्हारा ही संघर्ष हुआ है चित्रित
बदलता नहीं है स्त्री का जीवन
मनवन्तरों और युगों के बदलाव से
जैसे धुरी पर घूमती धरती
बदलती नहीं है
चन्द्रमा और सूर्य के लिए !
मनस्विनी
तुम्हारा धरती पर होना
धरती होने जैसा ही है !