अपनी विरजा नदी के जन्मस्रोत पर
बैठा है आरक्त चक्षु महिष एक
हँकड़ता, डकारता गटागट
सारा जल
पी जाता है।
जब से सृष्टि जन्मी
अर्थात् मैं जन्मा
तभी से यह काला महिष
जन्म सहोदरा नदी के स्रोत पर
भूत की तरह डटा है
गटागट सारे जल का पान कर जाता है
इसका आदिगन्त काला विकराल मुख
इसके रक्तवर्ण नेत्र, फुफकारते थुथुने
ऐबी सींगों पर झूलते इन्द्र, वरुण, दिग्पाल
यह जीवन से जुड़े अमोघ शाप की तरह
अनुक्षण नदी स्रोत पर डटा रहता है
कर जाता है सारा जल गटागट पान।
और यह नदी असहाय है
नदी है विरजा पापहरा
परन्तु असहाय है
तुम्हारी अश्लील नदी है।
दूसरी ओर
प्रिय मित्र! बह रही है परम प्राचीन।
अगाध जल से भरी हुई मुक्त वेणी इतराती हुई
पिता-पितामहों के पोसे हुए भेड़ियों की
टमटमाती जीभों से जो था कभी बहा लार
वही विषाक्त कर्मनाशा बन
बह रही है आज।
बजबजाता फेन कुत्सित थक्के गाज
आह, यदि तपा है तो करो पान
चाहो तो पीओ भेड़ियों का मुखस्राव।
छककर पीओ छूट है छूट
ताड़ी है, बड़ा मजा आयेगा।
अरे ऊपर मँडराती मांसभक्षी चीलें
बन जायेगी छोरियां कमनीय
काक बन जायेंगे कलकंठ किन्नर
मेला, महोत्सव जुड़ जायेगा यार
ओ प्यारे जीव हंस
पिता पितामहों का दान यह
कर्मनाशा कीर्तिनाशा बड़ी ही चटुल
और नशीली है।
भूल जा मानसी विरजा को
मुक्ताभक्षी जीवहंस!
तुम्हारी इस अश्लील नदी में
नग्नगात स्नान करके
मैं मानता रहा अपने को
आजन्म धन्य।
[ 1967 ]