जिस्म पर उभरी लकीरें
गवाह हैं
उन रास्तों की
जिनसे होकर गुज़रा हूँ
और बार-बार
असफल
फिर-फिर लौटा हूं
तुम्हारे पास
याचना लिए
प्रेम के छाँव की।
अपने दम्भ में
आगे निकल जाता हूँ
तुम्हें पीछे छोड़
लेकिन
वक़्त से टकराकर
लौटना पड़ता है
तुम्हारे पास
उँगली थामने।
यूँ ही नहीं गुज़रा क़्त
यूँ ही नहीं उभरी लकीरें
चेहरे पर
शरीर पर
ये गवाह हैं
उन पलों की
जब तुमने थामा है
मेरा हाथ
जो काँपने लगे थे पाँव।
तुम हमेशा ही
एक उम्मीद थी
मैं ही आँख मून्दे रहा
अपने सपनों से
जो हमेशा तैरते रहे
तुम्हारी आँखों में।