Last modified on 15 जून 2010, at 08:16

तुम्हारी ज़िन्दगी में / परवीन शाकिर

तुम्हारी ज़िन्दगी में
मैं कहाँ पर हूँ ?


हवा-ए-सुबह में
या शाम के पहले सितारे में
झिझकती बूँदा-बाँदी में
कि बेहद तेज़ बारिश में
रुपहली चाँदनी में
या कि फिर तपती दुपहरी में
बहुत गहरे ख़यालों में
कि बेहद सरसरी धुन में

तुम्हारी ज़िन्दगी में
मैं कहाँ पर हूँ ?

हुजूमे-कार से घबरा के
साहिल के किनारे पर
किसी वीक-ऐण्ड का वक़्फ़ा
कि सिगरेट के तसलसुल में
तुम्हारी उँगलियों के बीच
आने वाली कोई बेइरादा रेशमी फ़ुरसत
कि जामे-सुर्ख़ में
यकसर तही
और फिर से
भर जाने का ख़ुश-आदाब लम्हा
कि इक ख़्वाबे-मुहब्बत टूटने
और दूसरा आग़ाज़ होने के
कहीं माबैन इक बेनाम लम्हे की फ़रागत ?

तुम्हारी ज़िन्दगी में
मैं कहाँ पर हूँ ?