Last modified on 21 मार्च 2020, at 22:05

तुम्हारे आने से / मनीष मूंदड़ा

सूनापन, एकाकी
वो अध-खुली खिड़की में से झाँकते
सुबह-शाम तुम्हारा इंतजार करना
बहुत हुआ
ये अधर में बीते पलों का गुजरना
अब तुम आयी हो
देखो अब रोज दिवाली है
हर रोज की ये जगमगाहट
देखो कितनी निराली है
ख़ुशियों का समागम
ना दर्द ना कोई गम
इंतजार है बस वक्त के ठहर जाने का
सब कुछ धीमे होकर
रुक जाने का
हाथों को फैला
आसमान जोड़ लेने का मन होता है
इन रातों को अब समेट
कहीं और उडने का मन होता है
हवाओं को साथ ले
ख़ुद की नई धरती करने का मन होता है
जहाँ ना कोई सूनापन हो
ना फिर कभी कोई एकाकी मन।